Friday, June 11, 2010

हृदय का पीर

हृदय का पीर लेकर के तड़पता हूँ मैं बेचारा
नयन भर नीर लेकर के भटकता हूँ मैं आवारा
फलक ने छोड़ दी मुझको जमी अपना नहीं पाई
अधर में अंत है मेरा मैं एक टूटा हुआ तारा

यहाँ हर रोज़ गिरती गाज है उल्फत की ख्वाहिश पे
कई परवाने जल जाते है शम्मा की नुमाइश पे
मुझे सब लोग कहे हैं तुम्हे रोना नहीं आता
हजारों जख्म सीने में जो रोऊ तो मैं किस किस पे

तू कितनी बेवफा है ये मुझे सब साफ दिखता है
तेरी झूठी मोहब्बत में ज़फ़ा का आग दिखता है
तू अपने हुस्न की रौनक से डर इतना भी मत इतरा
कि जितना चाँद रौशन हो तो उतना दाग दिखता है

तेरी आँखों में मधुशाला मगर प्याला ज़हर का है
ये भोलापन तेरे चेहरे का बस धोखा नज़र का है
ज़माना खामखा इसको तेरी मेहंदी समझता है
तेरे हाथों में रंग लाया लहू मेरे जिगर का है



2 comments:

Priyank Rathi said...

Bahut mast hai sirji..........

Rohit Jain said...

mazaa aa gya sir ji.... aap aur b likhiye na..