Friday, August 17, 2018
भारतरत्न पंडित अटलबिहारी वाजपेयी
Sunday, June 13, 2010
तेरी यादें
कभी पतझड़ सी लगती हैं, कभी मधुबन तेरी यादें
हृदय में चल रहा मंथन तेरी यादों का है प्रियतम
कभी साँपों सी डसती हैं, कभी चन्दन तेरी यादें
मैं कोई तान वीणा की जो छेड़ूँ साज़ में तुम हो
कोई जब गीत गाउँ हो व्यथित आवाज़ में तुम हो
तुम्हारे बिन न होती कल्पना मुझसे है जीवन की
मेरा अंजाम ही तुम हो मेरी आग़ाज़ भी तुम हो
गगन में व्योम-गंगा सी हैं व्यष्टि में तेरी यादें
तेरी स्मृतियाँ मेरी सृष्टि हैं सृष्टि में तेरी यादें
श्रवण-सीमा जहाँ तक है वहां तक गूंजती है तू
जहाँ तक देखते दृग हैं, है दृष्टि में तेरी यादें
मैं लिखना चाहता हूँ गीत मन को दीप्त कर दे जो
नए जीवन-तरंगों से मुझे अभिषिक्त करदे जो
हृदय के वेदना की औषधि मैं ढूंढ़ता निशिदिन
विरहमयी याद से तेरी हृदय को रिक्त कर दे जो
Friday, June 11, 2010
हृदय का पीर
नयन भर नीर लेकर के भटकता हूँ मैं आवारा
फलक ने छोड़ दी मुझको जमी अपना नहीं पाई
अधर में अंत है मेरा मैं एक टूटा हुआ तारा
यहाँ हर रोज़ गिरती गाज है उल्फत की ख्वाहिश पे
कई परवाने जल जाते है शम्मा की नुमाइश पे
मुझे सब लोग कहे हैं तुम्हे रोना नहीं आता
हजारों जख्म सीने में जो रोऊ तो मैं किस किस पे
तू कितनी बेवफा है ये मुझे सब साफ दिखता है
तेरी झूठी मोहब्बत में ज़फ़ा का आग दिखता है
तू अपने हुस्न की रौनक से डर इतना भी मत इतरा
कि जितना चाँद रौशन हो तो उतना दाग दिखता है
तेरी आँखों में मधुशाला मगर प्याला ज़हर का है
ये भोलापन तेरे चेहरे का बस धोखा नज़र का है
ज़माना खामखा इसको तेरी मेहंदी समझता है
तेरे हाथों में रंग लाया लहू मेरे जिगर का है
Wednesday, June 9, 2010
अवसान
स्वर्णिम प्राची की रश्मि का, उपहार कहाँ दे पाउँगा
भाग्य नहीं मोती बनकर,गलहार तेरा बन पाउँगा
Saturday, January 31, 2009
सनातन प्रश्न
नव उत्पल-दल खिल जाते हैं, कलरव अनुगुंजित होती है
यह सूर्य सतत जल-जलकर के, किसकी सत्ता सत्यापित करता
किस महाशक्ति के कर में जीवन-वीणा झंकृत होती है
महाप्रलय के निविड़ निशीथ में चिर दीर्घ विमुर्छित संसृति थी जब
उस मरणसेज में प्रकृति को नवजागृति किसने दी थी तब
शिवतत्त्व से किसने महाशक्ति का परिणय प्रथम कराया था
जीवन के आदि बीजतत्व को जगती पर किसने लाया तब
जलमग्न धरा को रसातल से उन्मुक्त किया,उत्थान दिया
सिन्धु और वसुधा को निज-निज मर्यादा का ज्ञान दिया
व्योमहीन धरणी को किसने नील-निलय का आश्रय दे
नक्षत्र-चंद्रमयी रजनी दी, दिवस दिया दिनमान दिया
अचल-अटल यह तुंग हिमालय,चरणों में शीश झुकाता है
घनश्याम घटा कर जलद-नाद,किसका जयघोष सुनाता है
अविरल गंगा बहती है,किसके करुणा की धार लिए
क्षिति से नभ तक कण-कण में वह कौन समाहित रहता है
किसकी सुषमा मधुबन में सहज हृदय हर लेती है
किसका सौरभ कुसुम कुञ्ज में मलय गंध भर लेती है
कलकंठी के स्वर में किसका संगीत गूंजता नैसर्गिक
किसकी सुन्दरता कण कण में आकर्षण भर देती है
किसका पुण्यप्रसून खिला चारुस्मित शिशु के अधरों पर
किसका मृदु वात्सल्य मिला माता की आँचल तारों पर
किसकी मृदुल हथेली का स्पर्श भुलाये नहीं भूलता
किसकी ममता माता बन अवतीर्ण हुई अवनी तल पर
Sunday, January 25, 2009
मेरी कविता
क्या कविता स्वयं के विज्ञापन की भावना है,
क्या कविता महत्वाकांक्षी होती है,
नहीं नहीं मेरी कविता वर्त्तमान भयावह नृशंस परिस्थितियों की तटस्थ साक्षी होती है
क्या कविता में सौंदर्य होता है,
क्या कविता में माधुर्य होता है,
क्या कविता है अनुरागी भावना,
झलकती होगी इसी की कविता में आराधना,
मेरी कविता तो दृगजल की आहुति से धधकते अंतर्मन के अनल की तीव्र वेदना है
क्या कविता शब्दों का मायाजल है,
क्या कविता विद्वता की मिसाल है,
नहीं नहीं मेरी कविता शोषितों का शोषकों के प्रति एक अंतहीन उत्तर्विहीन सवाल है
मेरी कविता के दीपक में ज्योति नहीं ज्वाला है ,
मदिरा नहीं है मेरा काव्य,पी सको तो कालकूट का प्याला है
मेरी कविता ----
निर्धनता के अपराधबोध से दबे ह्रदय पीडा है,
सतत अभावों से ग्रसित जीवन की बोझिल बीडा है,
नयननीर के निर्झर की नीरवता मेरी कविता,
विश्वव्यापी वेदना की व्यापकता मेरी कविता
मेरी कविता ----
चिर उपेक्षित कानन कुसुमों का अरण्य रोदन है
प्रासादों के कोलाहल में कुटीरों का करून क्रंदन है,
काव्य कुसुम की कलि नहीं कंटक है मेरी कविता ,
स्मित कुसुमित तरु नहीं शुष्क विटप मेरी कविता
Friday, December 5, 2008
मेरी मधुशाला (काव्याकाश के ज्वाज्वल्यमान नक्षत्र स्वर्गीय हरिवंशराय बच्चन को एक भावभीनी श्रद्धांजलि)
मानव मन की वासना, वासना जनित वेदना, वेदना जनित वैराग्य , वैराग्य जनित शांति और इसी शांति से उद्भूत होता है "जीवन-दर्शन" और ऐसे ही दर्शन की एक विधा है "मधुशाला"....
मधुशाला के सन्दर्भ में लिखना ठीक वैसे ही प्रतीत होता है, जैसे महाज्योति स्वरुप दिवेश की दीपक जलाकर आरती उतारना........जब कविवर हरिवंश जैसा सूर्य अस्ताचल के अंक में विश्राम करने चला जाता है तो हमारे जैसे खद्योत टिमटिमाकर अपने अस्तित्व के प्रदर्शन का प्रयत्न करते हैं .......मैं भी कदाचित् कुछ ऐसा ही करने जा रहा हूँ ....परन्तु मेरा यह प्रयत्न स्व. हरिवंश राय बच्चन जी को एक भावभीनी श्रद्धांजलि है... ....उनकी मधुस्मृति में चंद रुबाइयाँ निम्नलिखित हैं॥
कभी छलकती थी हृदयों के
पात्रों से दर्शन की हाला,
बच्चन जी जैसे साकी थे
हर सहृदय पीनेवाला,
आज भी है मधु इस जगती पर
हरिवंश सा किन्तु साकी नहीं
आज भी हैं मधुशालाएँ पर
आज नहीं वो मधुशाला....
हृदय बनी मय की भट्टी है
नयन बने मधु का प्याला
छलका करती निसिदिन जिससे
दृगजल बन कर के हाला
साकी बनी है आकुल अंतर
पीनेवाला मैं ही हूँ
मुझसे ही प्रेरित हो करके
बनी है जग मैं मधुशाला...
तृप्ति नहीं तृष्णा की होती
प्यास बढाती है हाला
भौतिकता में और डूबाती
कनक रजत मंडित प्याला
मधुबाला के प्रेम में मुझको
घृणा सहज दिख जाती है
मृग सर की मृग नीर मधु है
मरुभूमि है मधुशाला...
मेनका कहो उर्वशी कहो
रम्भा भी क्या है मधुबाला
सोम कहो या सुरा वारुणी
नाम अलग पर है हाला
मर्यदाच्युत हो-हो करके
त्रिदिव जिसे पीते जाते
मर्त्य लोक की कौन कहे जब
बनी त्रिविष्टप मधुशाला......
क्या बनते हो पीने वाले
पीकर थोडी सी हाला
क्या दिखलाते हो भर-भरकर
कलहमई मय का प्याला
नाज़ यदि पीने पर तुमको
बनकर शिव सा दिखलाओ
स्वयं हलाहल पीकर जिसने
दे दी जग को मधुशाला........
योगेश्वर बन साकी आए
वेणु बन आयी प्याला
ढाली गयी गोकुल गलियों में
स्वरलहरी सुरमयी हाला
पीकर धेनु ग्वाल-बाल सब
भग्वत्मद उन्मत्त भये
वृन्दावन यमुनातट गोकुल
बंसीवट थी मधुशाला........
श्यामल घन मधु विक्रेता है
चंचल चपला मधुबाला
ढाले जो इस धरा अधर पर
जीवनमयी सुरभित हाला
पीकर द्रुमदल लता कुसुम सब
हरा-भरा यौवन पाते
वर्षारितु में बनती देखो
धरा व्योम सब मधुशाला........
नयनों में मदिरा दिखाती है,
अधरों में दिखता प्याला
मधुकलशी सी बदन से तेरी,
छलके यौवन रस हाला
देख तुझे इच्छा होती है,
मैं भी शराबी हो जाऊँ
पा लूँ तुझको तो पा जाऊँ,
चलती फिरती मधुशाला