Friday, December 5, 2008

मेरी मधुशाला (काव्याकाश के ज्वाज्वल्यमान नक्षत्र स्वर्गीय हरिवंशराय बच्चन को एक भावभीनी श्रद्धांजलि)

"मधुशाला" सन् १९३३ में प्रकाशित स्व. हरिवंशराय बच्चन जी की कालजयी रचना, जिसे हिंदी साहित्य के विद्वानों ने साहित्य की किसी एक विशेष धारा में न रखकर एक पृथक धारा में अर्थात् हालावादी कविता के रूप में वर्गीकृत किया है.... हालावादी अर्थात् मदिरा का पक्षधर, परन्तु बच्चन के मधुशाला की मदिरा कोई सामान्य मदिरा नहीं है अपितु ये तो वो मधु है जिसे पीकर भावी आशंकाएँ एवं अतीत की दारुण स्मृतियाँ विस्मृत हो जाती हैं, जिसे पान करके निर्धनता का अपराधबोध अथवा संपन्नता के गौरव का दर्प समाप्त हो जाता है.... मानस पटल में व्याप्त निविड़ तमिस्रा स्वतः छटने लगती है, दृष्टिगोचर होता है एक ज्योतिर्मय शाश्वत सत्य......
मानव मन की वासना, वासना जनित वेदना, वेदना जनित वैराग्य , वैराग्य जनित शांति और इसी शांति से उद्भूत होता है "जीवन-दर्शन" और ऐसे ही दर्शन की एक विधा है "मधुशाला"....

मधुशाला के सन्दर्भ में लिखना ठीक वैसे ही प्रतीत होता है, जैसे महाज्योति स्वरुप दिवेश की दीपक जलाकर आरती उतारना........जब कविवर हरिवंश जैसा सूर्य अस्ताचल के अंक में विश्राम करने चला जाता है तो हमारे जैसे खद्योत टिमटिमाकर अपने अस्तित्व के प्रदर्शन का प्रयत्न करते हैं .......मैं भी कदाचित् कुछ ऐसा ही करने जा रहा हूँ ....परन्तु मेरा यह प्रयत्न स्व. हरिवंश राय बच्चन जी को एक भावभीनी श्रद्धांजलि है... ....उनकी मधुस्मृति में चंद रुबाइयाँ निम्नलिखित हैं॥

कभी छलकती थी हृदयों के

पात्रों से दर्शन की हाला,

बच्चन जी जैसे साकी थे

हर सहृदय पीनेवाला,

आज भी है मधु इस जगती पर

हरिवंश सा किन्तु साकी नहीं

आज भी हैं मधुशालाएँ पर

आज नहीं वो मधुशाला....

हृदय बनी मय की भट्टी है

नयन बने मधु का प्याला

छलका करती निसिदिन जिससे

दृगजल बन कर के हाला

साकी बनी है आकुल अंतर

पीनेवाला मैं ही हूँ

मुझसे ही प्रेरित हो करके

बनी है जग मैं मधुशाला...


तृप्ति नहीं तृष्णा की होती

प्यास बढाती है हाला

भौतिकता में और डूबाती

कनक रजत मंडित प्याला

मधुबाला के प्रेम में मुझको

घृणा सहज दिख जाती है

मृग सर की मृग नीर मधु है

मरुभूमि है मधुशाला...

मेनका कहो उर्वशी कहो

रम्भा भी क्या है मधुबाला

सोम कहो या सुरा वारुणी

नाम अलग पर है हाला

मर्यदाच्युत हो-हो करके

त्रिदिव जिसे पीते जाते

मर्त्य लोक की कौन कहे जब

बनी त्रिविष्टप मधुशाला......

क्या बनते हो पीने वाले

पीकर थोडी सी हाला

क्या दिखलाते हो भर-भरकर

कलहमई मय का प्याला

नाज़ यदि पीने पर तुमको

बनकर शिव सा दिखलाओ

स्वयं हलाहल पीकर जिसने

दे दी जग को मधुशाला........

योगेश्वर बन साकी आए

वेणु बन आयी प्याला

ढाली गयी गोकुल गलियों में

स्वरलहरी सुरमयी हाला

पीकर धेनु ग्वाल-बाल सब

भग्वत्मद उन्मत्त भये

वृन्दावन यमुनातट गोकुल

बंसीवट थी मधुशाला........

श्यामल घन मधु विक्रेता है

चंचल चपला मधुबाला

ढाले जो इस धरा अधर पर

जीवनमयी सुरभित हाला

पीकर द्रुमदल लता कुसुम सब

हरा-भरा यौवन पाते

वर्षारितु में बनती देखो

धरा व्योम सब मधुशाला........

नयनों में मदिरा दिखाती है,

अधरों में दिखता प्याला

मधुकलशी सी बदन से तेरी,

छलके यौवन रस हाला

देख तुझे इच्छा होती है,

मैं भी शराबी हो जाऊँ

पा लूँ तुझको तो पा जाऊँ,

चलती फिरती मधुशाला

अपने फौजी मित्र के लिए....

प्राण भी उत्सर्ग करदे जो सदा हंसते हुए और त्याग दे सर्वस्व अपना राष्ट्र के उत्थान में
सौमित्र सा है वो तपश्वी प्रहरी है इस राष्ट्र का बस राष्ट्रहित रहता है जो तत्पर सदा संधान में
पुण्य सलिला जाह्नवी की शुभ्र धारा जैसी जिसके उर में बहती भावना बस राष्ट्र के सम्मान में
मैं यहाँ हूँ फिर भी मुझको है सदा अभिमान यह कि मित्र मेरा है खड़ा हिमश्रिंग के चट्टान में ....

Thursday, December 4, 2008

-:नारी:-

आद्यशक्ति स्वरूपा अनंत प्रेम की सनातन स्रोत, ममता,प्रेम,वात्सल्य,उत्सर्ग इन्ही सभी उदात्त भावनाओं से विभूषित अपने जीवन के हर क्षेत्र में जो केवल सृजन ही करना जानती है, वो है नारी

कभी माता कभी वनिता कभी दुहिता होती है नारी

सर्जन स्वरूपा होती है किन्तु सदा बेवश बेचारी

चीरबंदी बनाया गया यहाँ चीरवंदनीया नारी को

अर्थहीन मर्यादाओं ने बांधा जननी प्यारी को

माता बन ममता के रस से सिंचित करती जीवन को

बन वनिता निज मधुर प्रेम से करती तरंगित यौवन को

पिता पति दोनों के कुल के हित में बन जाती दुहिता

फिर भी जीवन के महाकाव्य में नारी बस करुणा रस कविता

-:विश्व-अस्तित्व:-

ज्योतिष्पथ के अंतस्तल में , मन्दाकिनी के वक्षस्थल में
नक्षत्रों की अगम गति में , सविता की तेजोमयी द्युति में
दुर्गम गिरी के तुंग श्रृंग में ,अस्ताचल के अरुण रंग में
सागर की उत्ताल तरंगों में , हिमगिरी के धवल अंगों में
अस्तित्व तुम्हारा दिखता है,
हे जगज्योती दर्शनाधार, व्यक्तित्व तुम्हारा दिखता है

सुगंध गर्विता कुसुम कुञ्ज में,मधुकर के सुमधुर गूंज में
हरीतिमा के हरित तेज में ,प्रियतमा के प्रणयसेज में
सरिता के अविरल कल-कल में , सरसुशोभिता अरुनोत्पल में
मिलन के चरम उन्माद में, विरहाकुल मन के विषाद में
अस्तित्व तुम्हारा दिखता है,
हे विराट हे अनंत सत्ता व्यक्तित्व तुम्हारा दिखता है
वर्षा ऋतू के जलदनाद में , आर्द्रहर्षित दर्दुर्निनाद में
शिशिर के कोमल तुषार में,हेमंत के शीतल बयार में
मधुरितु के सुललित प्रसून में,कोकिल की शुचि रुचिकर धुन में
शस्य श्यामला मेदिनी के अतिविस्तृत अभिराम दृश्य में
अति उतंग अर्णव तरंग के ,शीर्ष-गर्त के महानृत्य में
अस्तित्व तुम्हारा दिखता है,
हे कलातीत कालातीत सत्ता , व्यक्तित्व तुम्हारा दिखता है
संध्या की स्निग्ध तमिस्रा में,अर्धरात्रि की निद्रा में
दर्शन की जटिल समस्या में , मुनियों की कठिन तपस्या में
कर्मवीर के बाहुबल में , योद्धाओं के रणकौशल में
पतितापी के क्लिन्न नेत्र में, क्षमाशील के हृदयक्षेत्र में
योगियों की समाधि में,रोगी की भीषण व्याधि में
भिक्षु की अंतहीन आशा में , मानव मन की अभिलाषा में
अस्तित्व तुम्हारा दिखता है,
द्वैतहीन हे अद्वैत सत्ता व्यक्तित्व तुम्हारा दिखता है
यत्र -तत्र -सर्वत्र तुम्ही हो , वेद तुम्ही हो मंत्र तुम्ही हो
व्यष्टि तुम्ही हो तुम्ही समष्टि , स्रष्टा तुम हो तुम्ही हो श्रृष्टि
तुम्ही समस्या समाधान तुम,साध्य तुम्ही हो उपादान तुम
सुरा में तुम हो सोम में तुम हो , तुम्ही धरा में व्योम में तुम हो
ईश्वर तुम हो रब भी तुम हो ,धर्म तुम्ही मज़हब भी तुम हो
तुम्ही कुरान गीता में तुम हो , आयतें तुम्हारी ऋचा में तुम हो
तुम्ही आदि में अंत में तुम हो, हर मत में हर पंथ में तुम हो
कवि तुम्ही कविता भी तुम हो,कृष्ण तुम्ही गीता भी तुम हो
तुम ही तुम हो मुझमे तुम हो,हर इसमें हर उसमे तुम हो
तुम्ही पुष्प हो गंध तुम्ही हो, द्वन्दातीत हो द्वंद तुम्ही हो

--प्रतीक्षा--

क्षितिज से कोई मुझे एक अलौकिक अपनत्व लिए पुकारती मेरी ओर समय की गति से चली आ रही है,
अब तो मुझे उसकी पगध्वनि भी साफ -साफ सुनाई देने लगी है ......
वो अजनबी है मेरे लिए पर अजनबी लगती नहीं ....लगता है एक चिरविस्मृत दीर्घकाल के अंतराल में
वो मुझसे बारम्बार मिलती चली आ रही है .....
मैं उसको भूल सा गया था अपने लौकिक संबंधों के मृग्मरिचीका में फंसकर .......हाँ ये सोचकर कभी-कभी
बेचैन हो जाता था कि वो जब दस्तक देगी मेरी दहलीज़ पर तो क्या मैं ख़ुद से दरवाजा खोल पाउँगा ?...उसे
मुहदिखाई में क्या दूँगा ?....
कुछ सामान इकट्ठे किए हैं उसके लिए...जैसे सांसों कि गठरी में बंधी दुनिया से अपने रिश्ते का एहसास ...
कुछ लोगों कि मुझपर आशाएं ...कुछ लोगों से मेरी आशाएं ....
कुछ लोगों का मुझपर प्रेम ....कुछ लोगों से मेरा प्रेम.....
कुछ और करने कि चाहत , कोई और नया उद्देश्य ....
मुझे मालूम है गठरी बहुत भारी है , वो इतना साथ लेकर नहीं जा सकती ....
वो तो बस मुझे लेने आ रही है ...
सोचता हूँ कुछ सामान कम कर लूँ ताकि सफर में आसानी हो॥
मैं कम करने लगा हूँ अपने असबाब .....क्षण-प्रतिक्षण ...दिन-प्रतिदिन ....
थक सा गया था इन मूल्यहीन वस्तुओं कि देखरेख में.....
अब मुक्त होना है..हो रहा हूँ..क्षण-प्रतिक्षण ...दिन-प्रतिदिन ....
में अपना कुछ उसे दे नहीं दे सकता..क्योंकि मेरा कुछ है ही नहीं॥
वो केवल मुझे लेने आ रही है ...और मैं भी केवल उसी कि प्रतीक्षा में बैठा हूँ
कि कब वो आएगी और मैं उसके साथ असीम शांतिमयी अनंतपथ पर पथारूढ़ हो जाऊंगा...

-:माँ:-

अवनि झुकी अम्बर है झुका,
ब्रह्माण्ड जहाँ झुक जाता है
मानवता क्या जिस आँचल में ,
देवत्व भी सुख पाता है
नहीं कोई दूजी सत्ता ,
वो स्नेह स्वरूपा माता है
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पूर्वा के आर्द्र बयारों सी,
बारिस की सर्द फुहारों सी
फूलों से लदी डाली जैसी,
खेतों की हरियाली जैसी
मुझको मेरी माँ लगती थी.....

धुल भरा तन लेकर जब मैं ,
आँचल से लिपट जाता माँ की
अपने अंक में भर लेती थी,
स्नेह से फिर थी दुलराती
कभी शरारत करता था तो,
डांट-डपट करती थी माँ
मुझको तो थोडी सी रुलाती,
किन्तु बहुत रोती थी माँ
दर्द भरे लम्हों में दवा सी
मुझको मेरी माँ लगती थी......
कभी व्यथित हो जाता जब
मैं जीवन के संघर्षों से,
जटिल-कुटिल जीवन शैली
से बढते हुए आमर्षों से
किन्कर्तव्यविमुढ हुआ हूँ
जीवनपथ पर जब भी मैं
दुविधा के क्षण में धीरज सी
मुझको मेरी माँ लगती थी.......

वात्सल्यमयी मन्दाकिनी जिसके
चरणों में था स्वर्ग बसा
सहनशीलता पृथ्वी सी
अम्बर सी थी जिसमे व्यापकता
ज्योतिर्मयी मधुमयी विश्वस्वरूपा
मुझको मेरी माँ लगती थी.....

वो आँचल जो बचपन का अभिमान होता है
वो आँचल जो ममत्व का वरदान होता है
वो आँचल जिसके हर तार में उत्सर्ग होता
है वो आँचल जिसकी छाँव में स्वर्ग होता है
भाग्य में नहीं था मेरे वो आँचल
प्रारब्ध का मारा हूँ मैं
सूख गयी ममता की सरिता
चिर निस्तब्ध किनारा हूँ मैं