Thursday, December 4, 2008

--प्रतीक्षा--

क्षितिज से कोई मुझे एक अलौकिक अपनत्व लिए पुकारती मेरी ओर समय की गति से चली आ रही है,
अब तो मुझे उसकी पगध्वनि भी साफ -साफ सुनाई देने लगी है ......
वो अजनबी है मेरे लिए पर अजनबी लगती नहीं ....लगता है एक चिरविस्मृत दीर्घकाल के अंतराल में
वो मुझसे बारम्बार मिलती चली आ रही है .....
मैं उसको भूल सा गया था अपने लौकिक संबंधों के मृग्मरिचीका में फंसकर .......हाँ ये सोचकर कभी-कभी
बेचैन हो जाता था कि वो जब दस्तक देगी मेरी दहलीज़ पर तो क्या मैं ख़ुद से दरवाजा खोल पाउँगा ?...उसे
मुहदिखाई में क्या दूँगा ?....
कुछ सामान इकट्ठे किए हैं उसके लिए...जैसे सांसों कि गठरी में बंधी दुनिया से अपने रिश्ते का एहसास ...
कुछ लोगों कि मुझपर आशाएं ...कुछ लोगों से मेरी आशाएं ....
कुछ लोगों का मुझपर प्रेम ....कुछ लोगों से मेरा प्रेम.....
कुछ और करने कि चाहत , कोई और नया उद्देश्य ....
मुझे मालूम है गठरी बहुत भारी है , वो इतना साथ लेकर नहीं जा सकती ....
वो तो बस मुझे लेने आ रही है ...
सोचता हूँ कुछ सामान कम कर लूँ ताकि सफर में आसानी हो॥
मैं कम करने लगा हूँ अपने असबाब .....क्षण-प्रतिक्षण ...दिन-प्रतिदिन ....
थक सा गया था इन मूल्यहीन वस्तुओं कि देखरेख में.....
अब मुक्त होना है..हो रहा हूँ..क्षण-प्रतिक्षण ...दिन-प्रतिदिन ....
में अपना कुछ उसे दे नहीं दे सकता..क्योंकि मेरा कुछ है ही नहीं॥
वो केवल मुझे लेने आ रही है ...और मैं भी केवल उसी कि प्रतीक्षा में बैठा हूँ
कि कब वो आएगी और मैं उसके साथ असीम शांतिमयी अनंतपथ पर पथारूढ़ हो जाऊंगा...

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