Thursday, December 4, 2008

-:माँ:-

अवनि झुकी अम्बर है झुका,
ब्रह्माण्ड जहाँ झुक जाता है
मानवता क्या जिस आँचल में ,
देवत्व भी सुख पाता है
नहीं कोई दूजी सत्ता ,
वो स्नेह स्वरूपा माता है
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पूर्वा के आर्द्र बयारों सी,
बारिस की सर्द फुहारों सी
फूलों से लदी डाली जैसी,
खेतों की हरियाली जैसी
मुझको मेरी माँ लगती थी.....

धुल भरा तन लेकर जब मैं ,
आँचल से लिपट जाता माँ की
अपने अंक में भर लेती थी,
स्नेह से फिर थी दुलराती
कभी शरारत करता था तो,
डांट-डपट करती थी माँ
मुझको तो थोडी सी रुलाती,
किन्तु बहुत रोती थी माँ
दर्द भरे लम्हों में दवा सी
मुझको मेरी माँ लगती थी......
कभी व्यथित हो जाता जब
मैं जीवन के संघर्षों से,
जटिल-कुटिल जीवन शैली
से बढते हुए आमर्षों से
किन्कर्तव्यविमुढ हुआ हूँ
जीवनपथ पर जब भी मैं
दुविधा के क्षण में धीरज सी
मुझको मेरी माँ लगती थी.......

वात्सल्यमयी मन्दाकिनी जिसके
चरणों में था स्वर्ग बसा
सहनशीलता पृथ्वी सी
अम्बर सी थी जिसमे व्यापकता
ज्योतिर्मयी मधुमयी विश्वस्वरूपा
मुझको मेरी माँ लगती थी.....

वो आँचल जो बचपन का अभिमान होता है
वो आँचल जो ममत्व का वरदान होता है
वो आँचल जिसके हर तार में उत्सर्ग होता
है वो आँचल जिसकी छाँव में स्वर्ग होता है
भाग्य में नहीं था मेरे वो आँचल
प्रारब्ध का मारा हूँ मैं
सूख गयी ममता की सरिता
चिर निस्तब्ध किनारा हूँ मैं




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